विभूति नारायण मिश्र क्यों? विभूति
नारायण जाटव क्यों नहीं?
अगर आप ''भाभी जी घर पर
हैं'' देखते हैं तो शायद आप ने ध्यान दिया होगा की उस नाटक के किरदार मिश्र,
तिवारी
और सक्सेना हैं. क्या कभी कोई इस बात पर गौर करता है कि टीवी नाटकों के किरदार और
हिंदी फिल्मो के किरदारों के से एक भी किरदार sc/st/obc वर्ग से नहीं
होता. अगर भूल से कोई यादव किरदार होगा तो उसे दूध वाला दिखा दिया जायगा, और
अगर चौरसिया हुआ तो पान वाला. कपिल का शो
इसका उदाहरण है, कपिल के ही शो में एक किरदार शौचालय का मालिक
दिखाया गया है, लेकिन उसे साउथ इंडियन दिखाया गया है, क्या
कभी कपिल ने किसी शर्मा को शौचालय का मालिक दिखाया? इसी तरह आप अपनी
बुद्धि पे थोडा सा जोर डालें तो "लापतागंज" हास्य नाटक को याद आयेगा,
इसमें
बाजपाई, तिवारी और मिश्र थे, कोई जाटव, कुरील, दोहरे
आदि नहीं था, क्या पूरे गाँव में केवल मिश्र, बाजपाई
और तिवारी रहते थे? एक और बेहद प्रसिद्ध नाटक की तरफ आपका ध्यान
दिलाती हूँ, "ऑफिस ऑफिस" इसमें ऑफिस में काम करने वाले
सभी कलाकार पाण्डेजी, शुक्ला, भाटिया, अग्रवाल
थे. आप लोगो को क्या लगता है की ये कोई संयोग हैं?
कलर, सोनी, जी, स्टार
आदि टीवी चैनल्स में दिखाए जाने वाले बे सर पैर के धारावाहिकों को मैंने इस लिए
देखा कि शायद किसी धारावाहिक में कोई sc/st/obc वर्ग से किरदार
किसी अच्छे पद पर या चरित्र अभिनेता के तौर पर दिखाया गया हो, लेकिन
दुर्भाग्य से मुझे एक भी किरदार ऐसा नहीं मिला, भारत की आजादी
के ६५ साल बाद जब sc/st/obc वर्ग से लोग उच्च पदों पर बैठे हैं और
समाज में जिनकी गहरी छाप है, उन्हें टीवी नाटकों में समाज का
समानजनक हिस्से के रूप में जानबूझ कर नही दिखाया जाता, अगर दिखाया जाता
भी है तो किसी समस्या के रूप में.
तो इसे क्या माना जाये? कि टीवी और
बॉलीवुड, मनुवादी, जातिवादी एवं नस्लवादी मानसिकता से ग्रसित है ?
अगर
विभूति नारायण मिश्र की जगह विभूति नारायण दोहरे होता तो क्या इसे भारत के जनता
हजम न कर पाती कि वो एक तिवारी जी की पत्नी के प्रति आसक्ति रखता है, विभूति
नारायण मिश्रा, तिवारी की पत्नी के प्रति आसक्ति रख सकता है,
विभूति
नारायण दोहरे नहीं ? तो क्या ये माना जाये कि भारत की जनता प्रबल
रूप से जातिवादी और मनुवादी है? और अगर ऐसा नहीं है तो क्या टीवी और
बोलीवुड मनुवाद और जातिवाद को अप्रत्यक्ष रूप से प्रश्रय देते हैं और भारत में इसे
फैलाते हैं? खास बात ये कि विभूति नारायण मिश्र का किरदार
निभाने वाला कलाकार असल में मुस्लिम है जिनका नाम ''आशिफ शेख''
है ,
फिर
अगर विभूति नारायण मिश्र की जगह कोई मुस्लिम किरदार होता तो क्या ये बात कही जादा
सामाजिक, सहिष्णु, उदार और समाज को जोड़ने वाली ना होती ? फिर
प्रश्न ये उठता है कि क्या भारत की जनता इसे भी हजम न कर पाती? तो
फिर ये माना जाये कि भारत की जनता सांप्रदायिक और धार्मिक कट्टर है? यदि
नहीं तो फिर क्या ये सत्य है कि टीवी साम्प्रदयिक है? क्यों की वो
निजी हाथो में है, और निजी संस्थाए कथित रूप से उच्च कहलाना पसंद
करने वाली जातियों की मिलकियत है.
चिंतन करने वाली बात है कि अगर भारत के जनता
मनुवादी और जातिवादी नहीं है, तो क्यों नहीं टीवी इस मामले में आंगे
बढ़ कर टीवी के प्रसिद्ध किरदारों के नाम sc/st/obc वर्ग से रखते
हैं? इससे भारतीय समाज में इस वर्ग के प्रति दुराग्रह समाप्त होगा और इनकी
स्वीकार्यता बढ़ेगी, क्यों कि टीवी का असर जनता पर सर्वाधिक होता है,
इसे
पिछले सालो में समझा गया है. और यदि किसी धारावाहिक या नाटक को इस आधार पर जनता
द्वारा नाकारा जाता है कि उसमे विभूति नारायण मिश्रा नहीं बल्कि विभूति नारायण
दोहरे है तो क्यों नहीं भारत सरकार इससे सम्बंधित दिशानिर्देश जारी करती है ?
और
ऐसे धारावाहिक नाटक को इस आधार पर निरस्त या रोक लेती है कि उसमे कोई sc/st/obc
समाज
का किरदार नहीं है.
हौलीवुड फिल्मो में अश्वेत कलाकारों को रखा
जाना अनिवार्य है, यही कारन है की अश्वेत लोगो के प्रति आम लोगो
के नजरिये में बदलाव आया है, आज विदशों में अश्वेत और स्वेत विवाह
बेहद आम बात है, और इस बदलाव के पीछे वहाँ की फिल्मो का
महत्वपूर्ण योगदान है, विदेशियों की हर बात में नक़ल करने वाली भारत
सरकार को चाहिए कि इस कार्य में भी अंग्रेजों से प्रेरणा ले, और अनिवार्य रूप से sc/st/obc वर्ग
का प्रतिनिधित्व करता हुआ किरदार टीवी और फिल्मो में रखना अनिवार्य कर दे, खास
बात ये की इन किरदारों को उच्च प्रतिभा से सम्म्पन, चरित्र किरदार
के रूप में प्रस्तुत किया जाये.
जब पूरा विश्व डॉ आंबेडकर के जन्म दिवस को
वर्ल्ड नॉलेज दे के रूप में मना रहा है, तब भारत सरकार को ऐसे आदेश पारित कर के
डॉ आंबेडकर के प्रति सच्ची श्रधांजलि अर्पित करनी चाहिए, वर्ना डॉ
आंबेडकर का जन्म दिवस मानना एक नौटंकी ही समझी जायगी.
* रानी चौधरी *