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दलित उत्पीडन , पुलिस और न्याय - रानी चौधरी


दलित उत्पीडन , पुलिस और न्याय

. मेरी एक मित्र हैं , स्कूल के समय की दोस्त हैं , उनके एक भाई हैं जो रणवीर सेना में सक्रिय सदस्य रहे हैं , अपनी मित्र से मुलाकात के समय उनके भाई से भी मुलाकात और विचारों को जानने का अवसर मिला , दिखने में अच्छे हैं लेकिन प्रबल क्रोधी , दलितो के प्रति तो ऐसा क्रोध भरा हुआ है मानो पिछले २५०० सालो से दलित ही उनसे खेतों में बेगारी करवा रहे हों और हंटर चला रहे हों . जब भी उनसे इस विषय पर बात होती तो उनके मुह से आग ही बरसती. बहन उनकी बड़ी अनोखी है , भाई रणवीर सेना में है और बहन ने माले ज्वाइन कर रखा है , भाई साहब कहते है की " क्या दीदी आप को भी ये चमारो की पार्टी मिली थी ?"

. अभी कुछ दिन पहले मेरी मित्र ने एक खुशखबरी दी , बताया की भाई का चयन I.P.S. में हो गया है. मुझे समझ नहीं आया की खुश होऊ की दुखी . एक ऐसा व्यक्ति जिसके विचार इस प्रकार दूषित हों और वो I.P.S. में चयनित हो गया . ऐसे ही हजारों लोग हर वर्ष पुलिस और न्यायिक सेवा के लिए चुने जाते हैं जो विभिन्न अलगाववादी, जातिवादी, सांप्रदायिक विचारधारा वाले संस्थाओ से सक्रिय रूप से जुड़े होते हैं या प्रभावित होते हैं. आप खुद ही अंदाज़ा लगा सकते हैं की जब दलितो की बस्तियां जलाई जाती हैं तो रिपोर्ट कौन तैयार करता है ? और ये रिपोर्ट कोर्ट में जिनके सामने प्रस्तुत की जाती है वो कहाँ से आए होते हैं? फिर उसके बाद निर्णय क्या आता है ?

. सैकडो झोपडियाँ जला दी जाती हैं , सैकडो मासूम लोग जिन्दा जलाये जाते हैं , जिसमे छोटे छोटे बच्चे भी होते हैं जो खुद अपनी रक्षा तक नहीं कर सकते हैं , लेकिन उन बच्चो को बचाए कौन जब उनके माँ बाप खुद जिन्दा जलने से अपने आप को नहीं बचा पा रहे होते हैं . बाहर से दरवाजों पर कुण्डियाँ मार दी जाती हैं और पूरी रणनीति से पेट्रोल डाल कर पूरी बस्ती एक साथ जला दी जाती है , अगर कोई बाहर आ भी जाता है तो उसे गोली मार दी जाती है और उठा कर आग में फेंक दिया जाता है. आप खुद उस मंजर का अंदाज़ा लगा सकते हैं. जो नरसंहार जाति और अहंकार के नाम पर भारत में होता रहता है वो अगर यूरोप में कहीं हो जाये तो उसे इतिहास में दर्ज कर लिया जाये, लेकिन भारत में तो ये आम बात है.

. मामला अंत में कोर्ट पहुचता है, और कोर्ट में सब बरी, ऐसे मामलो में सभी आरोपियों को सबूत के अभावों में बरी कर दिया जाता है . अब आप जानते है की ये सबूत इकठ्ठा कौन करता है.

. असल में न्याय तो केवल एक बहाना है , आजादी से पूर्व जब किसी क्रांतिकारी को अँगरेज़ मारना चाहते थे तो उस पर कोर्ट में मुकद्दमा चलाया जाता था , ताकि भविष्य में इसे हत्या ना माना जाये , ये मुकद्दमा ये दर्शाता था की अँगरेज़ कितने न्यायप्रिया हैं और सभी को अपना बचाव का अवसर देते हैं. न्यायधीश पूरे कानूनी तरीके से मृत्युदंड देता था जो पहले से लगभग तय होता था . आज ऐसे मामलो में जो निर्णय आते है उनमे , और अंग्रेजो के समय के न्यायपूर्ण हत्या में वास्तव में कोई मौलिक अंतर नहीं है. फिर भी अँगरेज़ केवल एक हत्या के दोषी होते थे , पूरी मानवता की नहीं.

श्रीमान ओशो सौरव से साभार

* रानी चौधरी *