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प्राथमिक शिक्षा का कोढ़- मुफ्त खाना, मुफ्त कपड़ा, मुफ्त किताबे, वजीफा - रानी चौधरी


प्राथमिक शिक्षा का कोढ़- मुफ्त खाना, मुफ्त कपड़ा, मुफ्त किताबे, वजीफा

जब से प्राथमिक शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए सरकारों द्वारा प्रयास किया गया तब से प्राथमिक शिक्षा और भी ज्यादा बुरी अवस्था में पहुच गयी, असल में सरकारों द्वारा किये गये प्रयासों से प्राथमिक शिक्षा अपने बेहतरी से दुर्गति की ओर आ गयी, आइये जानते हैं इसकी दुर्गति के पीछे छिपे कारणों को.

मिड –डे – मील 


• अधिकांश बच्चे खाना खाने के बाद घर की ओर भागते हैं, उनको स्कूल में बनाये रखना शिक्षक के लिए चुनौती होता है.
• गाँव के अविभावक अपने नामांकित बच्चो के साथ २-३ साल के बच्चो को भी भेज देते हैं ताकि वो भी मिड-डे-मील का खाना खा लें और माँ खाना बनाने से बच जाये , घर का राशन बचे और सबसे बड़ी बात की एक सरदर्दी कुछ घंटो के लिए दूर रहे, ये बच्चे ना केवल स्कूल में पढाई नहीं होने देते बल्कि मल-मूत्र भी कर देते हैं ,जिसकी सफाई करवाना शिक्षक के लिए एक बड़ी सरदर्दी बन जाता है क्यों की अधिकांश गावों में सफाई कर्मचारी नदारद रहता है.
• मिड डे मील में शिक्षक और पढाई का कम से कम १.५ घंटा चला जाता है , जो पढाई को बड़ा नुकसान पहुचाता है.
• मिड से मील के बंटने के वक्त गाव के ऐसे बच्चे भी भोजन करने आ जाते है जो अन्य विधालय में नामांकित होते हैं, ऐसे में विवाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है.
• शिक्षक वर्ग मिड डे मील व्यवस्था का विरोधी होने पर भी इस व्यवस्था को चलाये रखने पर मजबूर किया जाता है , ये व्यवस्था दूर से देखने पर खाने के पीछे मची लूट-मार जैसी दिखाई देती है.
• ये व्यवस्था भ्रस्टाचार के लिए व्यापक आधार उपलब्ध करवाती है, नीचे से लेकर ऊपर तक मिड डे मील में भ्रस्टाचार की बड़ी ही व्यवस्थित व्यवस्था बनी हुई है.
• इस व्यवस्था ने प्राथमिक शिक्षा को पूरे समाज में उपहास का पात्र बना दिया है, इस व्यवस्था से शिक्षकों के सम्मान को गहरी क्षति पहुची है.
• विधालय खाना बटने की धर्मशाला हो कर रह गये हैं, शिक्षक के लिए भोजन को वक्त पर बटवा देना ही बड़ी उपलब्धि मानी जाती है,

वजीफा 


• वजीफा एक ऐसा कोढ़ है जो प्राथमिक शिक्षा को खा गया है, अधिकांश अविभावक केवल वजीफे के लिए अपने बच्चों का नाम स्कूल में लिखवा देते हैं, और बच्चा खेत में काम करता है, या खुद नहीं आता, अधिकांशतः ये देखने में आता है की माँ बाप को इसकी बिलकुल फिकर नहीं रहती की बच्चा स्कूल जा रहा है अथवा नहीं, उन्हें इसकी फिकर जरुर रहती है की वजीफा कब बटने वाला है.
• साल में मिलने वाले इस वजीफे के लिए स्कूलों में अपने बच्चे का नाम लिखाने की होड़ लगती है, ये अविभावक वजीफे के लालच में अपने बच्चे का नाम ४ -४ स्कूलों में लिखवा देते हैं, बच्चे को पढ़ाना नहीं वरन वजीफे का पैसा इनका लक्ष्य होता है.
• ये अविभावक वजीफे के लालच में अपने ३-४ साल के बच्चे का नाम भी स्कूल में लिखवाने के लिए शिक्षक पर अनावश्यक दबाव डालते हैं , शिक्षकों को कई बार नाम ना लिखने पर धमकियाँ तक मिलती हैं, उनकी झूठी शिकायत डीएम और बीएसए से करने की धमकी दी जाती है, इतने छोटे बच्चे का नाम कक्षा १ में लिखना संभव नहीं होता है क्यों की ६ साल से छोटे बच्चे का नाम कक्षा १ में नहीं लिखा जा सकता है, ऐसे में ये हड्डी शिक्षक के लिए ना निगलते बनती है ना उगलते, शिक्षक ऐसे में बच्चे की उम्र बढ़ा कर ६ साल लिख देते हैं, और अपनी आफत बचाते हैं.
• वजीफे के दिन अविभावक छुट्टी लेता है क्यों की उसे ४ जगह जा कर वजीफा लेना होता है, इस पैसे का इस्तेमाल बच्चे की पढाई के लिए कम और शराब के लिए जादा होता है, शराब के ठेके वजीफे वाली शाम को गुलजार रहते हैं , और ये खुशियाँ पूरे गांव में एक हफ्ते तक दिखाई देती हैं.
• वजीफे के लिए नाम लिखवाए ये बच्चे कभी विधालय नहीं जाते, लेकिन वजीफे वाले दिन सब के सब एक साथ उपस्थित दिखाई देते हैं, वजीफा मिलने के बाद से फिर बच्चे के दर्शन साल भर नहीं होते हैं , ऐसे में नामंकित छात्रों के सापेक्ष उपस्थित छात्रों की संख्या ३०% से भी कम होती है, लेकिन कम छात्र संख्या के लिए शिक्षक को दोषी माना जाता है और कई बार शिक्षक को इसके लिए निलंबित तक कर दिया जाता है.

मुफ्त ड्रेस और पुस्तकें 


• ये प्राथमिक शिक्षा का तीसरा सबसे बड़ा कोढ़ है , मुफ्त ड्रेस के लालच में भी खूब फर्जी नाम लिखाए जाते हैं, और ड्रेस मिलते ही बच्चे स्कूलों से गायब हो जाते हैं, ये ड्रेस वितरण दिवाली के समय होता है, उस समय सारे बच्चे उपस्थित दिखाई देते हैं. ४ स्कूलों से उनके पास 8 ड्रेसे हो जाती हैं
• ये ड्रेस बच्चे सुबह से शाम तक पहनते हैं ,नतीजा 2 महीने में ड्रेस फट जाती है , फिर से बच्चे वापस घर के कपड़ो में या चड्ढी बनियान में स्कूल पहुच जाते हैं, जब बिना ड्रेस के बच्चे दिखाई देते हैं तो शिक्षक को इसके लिए जिम्मेदार माना जाता है.
• मुफ्त पुस्तकों का भी यही हाल होता है, ये मिलने वाले दिन से ही फटना शुरू हो जाती हैं कुछ ही दिनों में पुस्तकें फट कर आधी रह जाती हैं और उसके बाद किसी चूरन वाले के पास दिखाई देती हैं, चूंकि ये फ्री होती हैं इस लिए इनकी कोई इज्जत ना तो बच्चो के मन में होती है और ना ही अविभावकों के मन में, अविभावको के लिए तो मुफ्त पुस्तकें बच्चों के लिए मुफ्त का खिलौना होती हैं, चाहें फाड़े या चूरन वाले को बेच दे, उन्हें इससे कोई मतलब नहीं होता, अगर ये किताबें अविभावक खुद पैसा खर्च करके खरीदें तो निश्चित ही इसका ध्यान रखें की किताबों की हालत कैसी है.

सरकारों के लिए प्राथमिक शिक्षा अपनी राजनीती चमकाने का एक जरिया बन गयी है , मुफ्त की चीजों के घोषणा आए दिन होती रहती हैं , सरकार को इससे मतलब नहीं की वास्तव में जमीनी हालात क्या हैं , उसे कागजों से मतलब है, घोषणा होने के दिन सरकार के कार्यों का लेखा जोखा अख़बारों में छपता है और सरकार द्वारा किये गये प्रयासों की प्रसंशा होती है, ये सुझाव सरकार को देने वाले वो अधिकारी होते हैं जो कभी अपने वातानुकूलित कक्षों से निकलते ही नहीं , उनके तुगलकी दिमाग के तुगलकी फैसलों को सरकारें डंडा चला कर लागू करवा देती हैं , नीचे काम करने वाला सारी हकीकत जानता है , लेकिन उसकी राय का कोई महत्व नहीं होता ना ही उसे बोलने का अधिकार ही होता है , उसे केवल तुगलकी फरमानो को अमलीजामा पहनाना होता है. प्राथमिक शिक्षा की दुर्गति के लिए वास्तव में वो अधिकारी वर्ग जिम्मेदार है जो स्वम को बड़ा बुद्धिमान समझता है लेकिन जमीन पर हमेशा फेल होता है, बार बार मिड-डे-मील, वजीफे और मुफ्त चीजों को बंद करने के लिए आवाजें उठती रही हैं लेकिन उन्हें हमेशा बेरहमी से कुचल दिया गया.

*रानी चौधरी *